ग्रहों के अस्त, अवस्था, तत्व, प्रभाव संबंधी विशेष जानकारी
ग्रहों का अस्त होना
यह तो सर्वविदित ही है कि सूर्य का प्रकाश सर्वाधिक होता है, इसीलिए सूर्य को सब ग्रहों का राजा कहा गया है। दूसरा ग्रह जब सूर्य के निकट पहुंचता है, तब सूर्य की प्रचण्ड किरणों के आगे उसकी ज्योति मन्द पड़ जाती है; तब उस ग्रह को ‘अस्त’ की संज्ञा दी जाती है। कौन ग्रह सूर्य से कितने निकट होने (कितने अंशों की दूरी) पर अस्त होता है, वह इस प्रकार है
चन्द्रमा – सूर्य से 12 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
मंगल – सूर्य से 17 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
बुध – सूर्य से 13 अंश (मतान्तर से 14 अंश) के भीतर रहने पर अस्त रहता है। वक्री हो तो 12 अंश के भीतर।
गुरु – सूर्य से 11 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
शुक्र – सूर्य से 9 अंश के (मतांतर से 10 अंश) भीतर रहने पर तथा वक्री हो तो 8 अंश के भीतर रहने से अस्त रहता है।
शनि – सूर्य से 15 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
ग्रहों की अवस्था
3 से 9 अंश तक किशोरावस्था इसका प्रभाव अल्प रूप में होता है।
10 से 22 अंश तक युवावस्था इसका प्रभाव पूर्ण रूप में होता है।
23 से 28 अंश तक वृद्धावस्था इसका प्रभाव अल्प रूप में होता है।
29 से 2 अंश तक मृतावस्था इसका प्रभाव न के बराबर होता है।
ग्रहों का प्रभाव दिखाने का विशेष समय (भाग्योदय काल)
सूर्य – 22 से 24 वर्ष
चन्द्र – 24 से 25 वर्ष
मंगल – 28 से 32 वर्ष
बुध – 32-36 वर्ष
गुरु – 16-22-40 वें वर्ष
शुक्र – 25-28 वर्ष
शनि – 36-42 वर्ष
राहु – 42-48 वर्ष
केतु – 48-54 वर्ष की आयु में अपना विशेष प्रभाव दिखाते है
ग्रहों के तत्व
जिन पांच तत्वों से सृष्टि की रचना हुई, वे हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
तत्वों के आधार पर ग्रहों की जानकारी
सूर्य एवं मंगल – अग्नि तत्व प्रधान हैं।
चन्द्र एवं शुक्र – जल तत्व प्रधान हैं।
बुध – पृथ्वी तत्व प्रधान है।
गुरु – आकाश तत्व प्रधान है।
शनि – वायु तत्व प्रधान है।
ग्रहों से संबंधित रोग
सूर्य – सिर एवं दिमाग संबंधी रोग, गर्मी और जिगर से संबंधित रोग, अस्थि दौर्बल्य, हड्डी टूटना, नेत्र रोग, ज्वर, पित्त रोग, शरीर में जलन, हृदय रोग आदि। चन्द्रमा – रक्त विकार, जलोदर, उन्माद, मिरगी, शीत ज्वर, नींद के रोग, अतिसार, संग्रहणी, पीलिया, जल से भय, आदि।
मंगल – पित्त विकार, जलना, गिरना, चोट-चपेट, सिर में पीड़ा, एपेन्डेसाइट, अग्नि भय, शरीर का कोई अंग टूटना, पेट में फोड़ा, शस्त्र भय, नेत्र रोग, गुप्त रोग, सूखा रोग आदि।
बुध – वात-पित्त-कफ विकार, त्वचा रोग, गले का रोग, वाणी विकार, बुद्धि हीनता, नपुंसकता, नर्वस ब्रेकडाउन आदि।
गुरु – कान के रोग, वायु व कफ विकार, पेट का फोड़ा, स्थूलता दुर्बलता, कमर दर्द, कब्ज आदि।
शुक्र – कफ व वात रोग, वीर्य विकार, प्रमेह, मधुमेह, धातु क्षय, गुप्तरोग, आदि।
शनि – वात-कफ विकार, टांगों में दर्द, लड़खड़ाना, अत्यधिक श्रम से उत्पन्न विकार, जोड़ों के दर्द, पक्षाघात, कैंसर, श्वास नली का विकार, टी बी रोग, मानसिक चिन्ता आदि।
राहु – संक्रामक रोग, बवासीर, हाथ पैरों में सूजन, हृदय रोग, विष रोग, सर्पदंश, कोढ़, पिशाच पीड़ा आदि। केतु – चर्म रोग, हैजा, चेचक, विष विकार, आदि।
शुभ ग्रह एवं अशुभ ग्रह
चन्द्र, बुध, शुक्र व बृहस्पति शुभ ग्रह हैं। मंगल, शनि, राहु, केतु पाप ग्रह हैं। सूर्य क्रूर है-कम पापी है।
विशेष यह है कि चन्द्रमा स्वभावतः शुभ ग्रह है। यह घटता-बढ़ता रहता है। इसकी संज्ञा भी बदलती रहती है। बली-चन्द्रमा शुभ और क्षीण चन्द्र पाप माना जाता है। पूर्णमासी को चन्द्रमा पूर्ण बली (शुभ) तथा अमावस को पूर्ण क्षीण होता है। प्रायः शुक्ल पक्ष की पंचमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक शुभ तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी से शुक्ल पक्ष की चौथ तक अशुभ गिना जाता है। पूर्णमासी के जितना निकट होगा क्रमशः उतना ही अधिक शुभ तथा अमावस के जितना निकट हो उतना ही अशुभ।
वक्री एवं मार्गी ग्रह
सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि ये सातों ग्रह अपने-अपने पथ पर आगे ही आगे बढ़ते रहते हैं,तब इन्हें मार्गी कहते हैं। किन्तु सूर्य एवं चन्द्रमा को छोड़कर बाकी पांचों ग्रह कभी-कभी आगे चलने की बजाए पीछे की ओर चलना शुरू कर देते हैं, तब इन्हें बक्री (उलटा चलने वाला) कहते हैं। जब ये फिर से सीधा चलना शुरू कर देते हैं तब फिर मार्गी बन जाते हैं।