रोग एवं दुर्घटना और ज्योतिष

रोग एवं दुर्घटनाओं से सम्बन्धित ज्योतिषीय गणनाओं के सिद्धान्त

रोग एवं दुर्घटना और ज्योतिष

रोगों एवं दुर्घटनाओं के ज्ञान हेतु ज्योतिष में कुंडली को आधार बनाया जाता है। कुंडली के हर एक भाव अलग-अलग प्रभाव देते है। रोग की गणना में सर्वप्रथम इन्हीं भावों का ध्यान रखा जाता है। यूँ तो रोग एवं दुर्घटनायें किसी भी भाव से सम्बन्धित हो सकती हैं, यदि अन्य योग रोगकारक है तो, परन्तु छठा, आठवौं एवं बारहवाँ भाव का इसमें विशिष्ट महत्त्व दिया जाता है। इन भावों से सर्वप्रथम रोग गणना की जाती है, जिनके सिद्धान्त निम्नलिखित हैं :-

षष्ठम् भाव

इस भाव का नाम ‘रिपु’ है। रिपु शत्रु को कहते हैं। रोग भी शत्रु ही होते हैं, जो आक्रमण करके शरीर को कष्ट पहुंचाते हैं। इसी प्रकार दुर्घटनाओं के कारण शत्रु भी होते हैं। अत: सर्वप्रथम रोग एवं दुर्घटनाओं का विचार षष्ठम् भाव से करना चाहिये।

  • षष्ठम् भाव में जो ग्रह स्थित होगा, वह अपने गुणों के अनुरूप या कारक भाव के अनुरूप रोग या दुर्घटना उत्पन्न करता है।
  • षष्ठम् भाव का कारक ग्रह किसी अन्य भाव में स्थित ग्रह को प्रभावित कर रहा हो, तो उस प्रभावित भाव के अनुरूप अंगों या रिश्तों को रोग या दुर्घटना से प्रभावित करेगा।
  • जब षष्ठम् भाव का कारक ग्रह किसी भाव में स्थित ग्रह पर अपनी दृष्टि डाल रहा हो तो दृष्टि क्षमता के अनुसार उस भाव के धर्म को भी प्रभावित करेगा।

अष्ठम भाव

अष्ठम भाव ‘आयु’ का भाव है। रोग से आयु भी प्रभावित होती है। इससे आयु पर आक्रमण होता है, इसलिये रोगों एवं गम्भीर दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में अष्ठम् भाव की भी गणना की जाती है

  • अष्ठम् भाव में स्थित ग्रह यदि नीच या पापग्रह हो और उसका प्रभाव अष्ठम् भाव को प्रभावित कर रहा हो, तो वह अनिष्टकारी परिणाम देगा।
  • इस भाव के कारक ग्रह जिस भाव में होंगे, उसको प्रभावित करेंगे।
  • इस भाव के कारक ग्रहों की दृष्टि जिन भावों पर होगी, उन भावों के अंगों या रिश्तों को भी ये दोषपूर्ण बनायेंगे।

द्वादश भाव

इस भाव का धर्म व्यय कराना है। यह शारीरिक शक्ति का भी व्यय कराता है। इसलिये रोग एवं दुर्घटना में इसकी भी गणना की जाती है।

  • इस भाव में जो ग्रह स्थित होगा वह अपने गुण के अनुरूप अंगों या शारीरिक अवयवों को क्षतिग्रस्त करेगा।
  • इस भाव का कारक ग्रह जहाँ स्थित होगा, उस भाव को प्रभावित करेगा।
  • इस भाव के कारक ग्रह की दृष्टि जिस भाव पर पड़ेगी. उस भाव के गणों एवं अंगों आदि को दृष्टि के अनुरूप प्रभावित करेगी।

विशेष : –

  • यहाँ यह स्मरण रखें कि नीच, क्षीण या दुष्टग्रह स्थिति ही रोगों को उत्पन्न करती है। ऐसा नहीं है कि षष्ठम् भाव में उच्चस्थ सूर्य स्थापित हो, तो भी वह हानि करेगा।
  • लघुपाराशरी’ में कहा गया है कि सूर्य, चन्द्र एवं लग्नेश यदि अष्ठम् भाव के स्वामी हों, तो भी अशुभ नहीं करते। इसी प्रकार व्ययेश (बारहवें भाव का स्वामी) त्रिकोणभाव का स्वामी होने पर शुभफल देता है।
  • यदि किसी भाव का स्वामी षष्ठम्भाव, अष्ठम्भाव एवं द्वादश भाव में स्थित है, तो उस भाव के फल को प्रभावित करता है।

लग्नेश

लग्नेश उस ग्रह को कहते हैं, जो लग्नभाव का स्वामी या कारक होता है।

  • यदि लग्न में पापग्रह या नीचग्रह है, तो वह सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करेगा।
  • यदि लग्नेश किसी भाव में स्थित है और वह पापित या नीच है, तो वह उस भाव के गुणों, अंगों, आदि को प्रभावित करेगा।
  • इसी प्रकार लग्नेश षष्ठम् भाव में स्थित हो तो वह सम्पूर्ण शरीर को रोग ग्रस्त करेगा।
  • यदि लग्न में कोई ग्रह स्थित है, तो वह अपनी स्थिति के अनुसार शरीर को प्रभावित करेगा अर्थात् उच्च होगा तो शुभफल देगा, नीच या पापित होगा, तो अशुभ फल देगा।
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