समयानुसार कर्तव्याकर्तव्य
कब क्या करना चाहिए
१. दो घटी अर्थात् अड़तालीस मिनटका एक मुहूर्त होता है। पन्द्रह मुहूर्त का एक दिन और पन्द्रह मुहर्त की एक रात होती है। सूर्योदय से तीन मुहूर्त का प्रातःकाल, फिर तीन मुहूर्त का 'संगवकाल', फिर तीन मुहूर्त का 'मध्याह्नकाल', फिर तीन मुहूर्त का 'अपरान्ह काल' और उसके बाद तीन मुहूर्त का 'सायाह्नकाल' होता है।
२. मनुष्य को चाहिये कि वह स्नान आदि से शुद्ध होकर पूर्वाह्न में देवता-सम्बन्धी कार्य (दान आदि), मध्याह्न में मनुष्य-सम्बन्धी कार्य और अपरान्ह में पितर-सम्बन्धी कार्य करे। असमय में किया हुआ दान राक्षसों का भाग माना गया है।
[पूर्वान्ह देवताओं का, मध्याह्न मनुष्यों का, अपरान्ह पितरों का और सायाह्न काल राक्षसों का समय माना गया है।]
३. ऋषियों ने प्रतिदिन सन्ध्योपासन करने से ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिये सदा मौन रहकर द्विज मात्र को प्रतिदिन तीन समय सन्ध्या करनी चाहिये। प्रातःकाल की सन्ध्या ताराओं के रहते-रहते, मध्याह्न की सन्ध्या सूर्य के मध्य-आकाश में रहने पर और सायंकाल की सन्ध्या सूर्य के पश्चिम दिशा में चले जाने पर करनी चाहिये।
४. मल-मूत्र का त्याग, दातुन, स्नान, भंगार, बाल सँवारना, अंजन लगाना, दर्पण में मुख देखना और देवताओं का पूजन-ये सब कार्य पूर्वाह्न में करने चाहिये।
५. दोनों सन्ध्याओं तथा मध्याह्र के समय शयन, अध्ययन, स्नान, उबटन लगाना, भोजन और यात्रा नहीं करनी चाहिये।
६. दोनों सन्ध्याओं के समय सोना, पढ़ना और भोजन करना निषिद्ध है।
७. रातमें दही खाना, दिन में तथा दोनों सन्ध्याओं के समय सोना और रजस्वला स्त्री के साथ समागम करना - ये नरक की प्राप्ति के कारण हैं।
८. दोपहर में, आधी रात में और दोनों सन्ध्याओं में चौराहे पर नहीं रहना चाहिये।
९. अत्यन्त सबेरे, अधिक साँझ हो जाने पर और ठीक मध्याह्न के समय कहीं बाहर नहीं जाना चाहिये।
१०. दोपहरके समय, दोनों सन्ध्याओंके समय और आद्रा नक्षत्र में दीर्घायु को कामना रखने वाले अथवा अशुद्ध मनुष्यों को श्मशान में नहीं जाना चाहिये।
११. सन्ध्याकाल (सायंकाल) में भोजन, स्त्री संग, निद्रा तथा स्वाध्याय - इन चार कर्मो को नहीं करना चाहिये। कारण कि भोजन करने से व्याधि होती है, स्त्री संग करने से क्रूर सन्तान उत्पन्न होती है, निद्रा से लक्ष्मी का ह्रास होता है और स्वाध्याय से आयुका नाश होता है।
१२. भोजन, शयन, यात्रा, स्त्री संग, अध्ययन, किसी विषय का चिन्तन, भबके से अर्क खींचना, कोई वस्तु देना या लेना - ये कार्य सन्ध्या के समय नहीं करने चाहिये।
१३. चौराहा, चैत्यवृक्ष, श्मशान, उपवन, दुष्टा स्त्री का साथ, देवमन्दिर, सूना घर तथा जंगल - इनका देर रात में सर्वदा त्याग करना चाहिये। सूने घर, जंगल और श्मशान में तो दिन में भी निवास नहीं करना चाहिये।
१४. रात्रि में पेड़ के नीचे नहीं रहना चाहिये।
१५. अमावस्या के दिन जो वृक्ष, लता आदि को काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है, उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगता है।
१६. संक्रान्ति, ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व काल प्राप्त होने पर जो मनुष्य वृक्ष, तृण और ओषधियोंका भेदन-छेदन करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है।
गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तक क्या करे क्या ना करे से साभार